कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है |
कि ज़िंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में |
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी |
यह तिरागी जो मेरे ज़ीस्त का मुकद्दर है |
तेरी नज़र की शुआँओं में खो भी सकती थी |
अजब न था कि मैं बेगाना-ए-आलम हो कर |
तेरे जमाल की रानाइयों में खो रहता |
तेरा गुद्दाज़ बदन, तेरी नीमबाज़ आँखें |
इन्हीं हसीन फ़ज़ाओं में मैं हो रहता |
पुकारतीं मुझे जब तलख़ियाँ ज़माने की |
तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता |
हयात चीखती फिरती बरेहना-सर और मैं |
घनेरी ज़ुल्फ़ों की छाओं में छुप के जी लेता |
मगर ये हो न सका |
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है |
कि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तुज़ू भी नहीं |
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे |
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं |
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले |
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से |
मुहीब साये मेरी सिमट भरते आते हैं |
हयात-ओ-मौत के पर-हाल खार-ज़ारों से |
न कोई जदा, न मंज़िल, न रोशनी का सुराग |
भटक रही है ख़यालों में ज़िंदगी मेरी |
इन्हीं ख़यालों में रह जाऊँगा कभी खो कर |
मैं जानता हूँ मेरे हम-नफ़स, मगर यूँ हीं |
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
के जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिये |
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं |
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिये |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
के ये बदन ये निगाहें मेरी अमानत हैं |
ये गेसुओं की घनी छाँव हैं मेरी ख़ातिर |
ये होंठ और ये बाहें मेरी अमानत हैं |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूँही |
उठेगी मेरी तरफ़ प्यार की नज़र यूँही |
मैं जानता हूँ के तू ग़ैर है मगर यूँही |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
के जैसे बजती हैं शहनाइयां सी राहों में |
सुहाग रात है घूँघट उठा रहा हूँ मैं (२) |
सिमट रही है तू शरमा के मेरी बाहों में |
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है |
Wednesday, December 23, 2009
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